जिसे बनना हो सबका नाथ, उसे भगवान पहले बनाते हैं अनाथ

“जिसे बनाना होता है भगवान का प्रतिनिधि, उसे दुनिया से पहले अलग किया जाता है”—यह पंक्तियाँ पूरी तरह चरितार्थ होती हैं ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी के जीवन पर। जिनका शुरुआती जीवन संघर्षों से भरा था, लेकिन उन्हीं संघर्षों की आग में तपकर वह हिन्दू समाज के पथप्रदर्शक, राष्ट्रसंत और राम मंदिर आंदोलन के अग्रदूत बने।
आज, 28 मई को हम उनके जन्म दिवस पर उनके प्रेरणास्रोत जीवन को स्मरण करते हैं, जिनका जन्म 1921 में उत्तराखंड के गढ़वाल जिले के कांडी गांव में हुआ था। जन्म नाम कृपाल सिंह विष्ट था, लेकिन विधि ने जैसे तय कर लिया था कि यह बालक केवल परिवार का नहीं, पूरे राष्ट्र का होगा। बचपन में माता-पिता और फिर दादी को खोने के बाद वह अनाथ हो गए। लेकिन शायद ईश्वर का यह ही इशारा था कि उन्हें ‘नाथ’ बनना है—गोरक्षनाथ परंपरा का अगला दीपक।
कृपाल सिंह विष्ट ने जीवन के आरंभिक दुखों से विरक्त होकर ऋषिकेश के सन्यासियों की संगति में धर्म, दर्शन और संस्कृति की शिक्षा ली। कैलाश-मानसरोवर की यात्रा के दौरान मौत से लौटे, और वहीं से उनके साधु बनने की दिशा तय हो गई। योगी शांतिनाथ के मार्गदर्शन में वह गोरक्षपीठ पहुंचे और दीक्षा लेकर अवेद्यनाथ बन गए। यह केवल नाम परिवर्तन नहीं था—यह पूरी जीवन दिशा का परिवर्तन था।
ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ केवल धार्मिक नेता नहीं थे, वे धर्म को राजनीति से जोड़ने वाले वह स्वर थे, जो मीनाक्षीपुरम के धर्मांतरण जैसे घटनाओं से आहत होकर राजनीति में कूदे। उन्होंने चार बार गोरखपुर से सांसद और पांच बार विधायक के रूप में जनता का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन उनकी राजनीति स्वार्थ नहीं, स्वधर्म की प्रेरणा से संचालित थी।
1984 में जब श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन की नींव पड़ी, तब अवेद्यनाथ जी इसके पहले प्रमुख स्तंभ बने। वह श्रीरामजन्मभूमि यज्ञ समिति के अध्यक्ष और न्यास के आजीवन सदस्य रहे। आंदोलन को जनांदोलन बनाने में उनकी भूमिका आधारस्तंभ जैसी रही।
सामाजिक समरसता की स्थापना के लिए उन्होंने बनारस में डोम राजा के घर संतों के साथ सहभोज कर वह संदेश दिया, जो आज भी प्रासंगिक है—धर्म का मतलब भेद नहीं, मेल होता है। संस्कृत के प्रकांड विद्वान, शिक्षा प्रेमी और ‘योगवाणी’ पत्रिका के संपादक के रूप में उन्होंने धर्म, शिक्षा और समाज को जोड़ने का कार्य किया।
अवेद्यनाथ जी ने राम मंदिर का सपना देखा और उसके लिए जीवनभर संघर्ष किया। आज जब अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण हो चुका है, तो यह संयोग नहीं, संकल्प की सिद्धि है कि जब यह सपना साकार हुआ, तब उत्तर प्रदेश की बागडोर उनके ही शिष्य योगी आदित्यनाथ के हाथों में थी।
महंत अवेद्यनाथ जी का जीवन इस बात का उदाहरण है कि विपत्ति भी ईश्वर की कृपा होती है, अगर उसका सामना श्रद्धा और संकल्प से किया जाए। आज उनके बताए रास्ते और दिए गए विचारों को आत्मसात करने की आवश्यकता है, क्योंकि उन्होंने न केवल एक संत के रूप में बल्कि एक राष्ट्रनिर्माता के रूप में अपनी पहचान स्थापित की।
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